बहुत से अर्थवान मसीही सोचते हैं कि पापमय विचार कोई गंभीर पाप नहीं है। उनका विचार है कि जब तक शारीरिक रूप से कोई पाप नहीं करते, तब तक पापमय विचारों को बनाए रखने में कोई बुराई नहीं है। देखिये, इसके विषय यीशु क्या कहता है; "क्योंकि भीतर से अर्थात् मनुष्य के मन से, बुरी-बुरी चिन्ता, व्यभिचार, चोरी, हत्या, परस्त्रीगमन, लोभ, दुष्टता, छल, लुचपन, कुदृष्टि, निन्दा, अभिमान और मूर्खता निकलती है" (मर.7:21,22) यहाँ पर प्रभु ने व्यभिचार और हत्या के पहिले बुरी चिन्ताओं को सूची में प्रथम स्थान दिया है।
बुरे विचारों को हमारे मन को मलिन करने के लिये हम अपने आप को सौंपते हैं, उसका एक मुख्य कारण है कि हम उसे गम्भीर पाप होकर नहीं समझते हैं।
यह सच है कि परमेश्वर अपनी दया से न्याय और दण्ड मे देरी करता है, परन्तु यदि हम पापमय विचारों के लिये परमेश्वर के महान दण्ड को जान लें, तो हम कॉप उठेंगे। उसका न्याय बीस वर्षों के कठोर कारावास से भी बदतर है। परमेश्वर का पहिला न्याय (जलप्रलय) पृथ्वी पर आया क्योंकि, “मनुष्य के मन के विचार में जो कुछ उत्पन्न होता है सो निरन्तर बुरा ही होता है” (उत्प. 6:5) स्मरण रखें, उस समय कोई कलीसिया नहीं थी, पवित्रशास्त्र नहीं, पवित्रशास्त्र के उपदेशक या पास्टर नहीं। साथ ही, पवित्रआत्मा भी उन्हें नहीं दिया गया था और यीश भी क्रूस पर नहीं मरा था। तौभी बुरे विचारों का न्याय बहुत कठोरता से हुआ। अनुग्रह के युग में जीवन बिताने वाले हमें डरते और काँपते हुए अपने उद्धार के कार्य को पूरा करना चाहिये। क्योंकि पिछले युगों से बढ़कर इस युग में परमेश्वर का न्याय बहुत अधिक होगा।
इसलिये, परमेश्वर के बच्चे, पवित्रआत्मा से कहें कि वह आप की सहायता करे। उससे कहें, कि वह कल्पनाओं को और हर एक ऊँची बात को, जो परमेश्वर की पहिचान में उठती हैं, खण्डन करने और हर एक भावना को कैद करने में सहायता करे।